Sunday 4 September 2016

तुम काफिले मुहब्बत के कुछ देर रोक लो, 

आते हैं हम भी पाँव से काँटे निकाल कर |

-अशोक निर्दोष की फेसबुक बॉल से

Sunday 28 August 2016

उलझे हैं इस दौर में हालत इस कदर ।
हर घर में हो गई है बगावत का क्या करें ॥
@ वीरेंद्र पुष्पक

Wednesday 3 August 2016

क्या भरोसा कल हुकूमत छीन ले मुझसे कलम
मुझको जो लिखना था मैने आज सब कुछ लिख दिया
माहिर निज़ामी मुंबई
सामान बांंध लिया है मैने अब बताओ गालिब,
कहां रहतें हैं वे लोग जो कहीं के नहीं रहते।
इंद्रदेव भारती की फेस बुक वॉल से 

News Feed

( यदि इस पोस्ट को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा )
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
बोस्टन वासी लखनऊ की श्रीमती उमाराय जी
की पोस्टसे उनकी वधु डॉ.ज्योत्सना मिश्रा जी
की यह कवितामयी अभिव्यक्ति भारतीय
संस्कृति में रची - बसी सकल मातृशक्ति के
आंतरिक उद्गारों का एक मार्मिक दस्तावेज है।
जिसे तमाम विश्व की मातृशक्ति को उनकी
ओर से समर्पित कर रहा हूँ ।
-------------------------------------------------------
( मूल रचनाकार- डॉ.ज्योत्सना मिश्रा )
|| नारी : तेरी यही कहानी ||
-------------------------------------------------------
लोग सच कहते हैं -
औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
रात भर पूरा सोती नहीं,
थोड़ा - थोड़ा जागती रहतीं हैं ।
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं हैं ।
टटोलती रहतीं हैं
दरवाजों की कुंडियाँ,
बच्चों की चादर,
पति का मन..
और जब जागती हैं सुबह,
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
हवा की तरह घूमतीं हैं,
कभी घर में, कभी बाहर...
टिफिन में रोज़ रखतीं हैं नयी कविताएँ,
गमलों में रोज बो देती नयी आशाऐं,
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं हैं,
और चल देतीं हैं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल-
पहन कर फिर वही सीमायें,
खुद से दूर हो कर भी-
सब के करीब होतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं,
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं-
चुल्हे पे चढ़ा दूध...
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं-
बच्चों के मोजे,
पेन्सिल, किताब ।
बचपन में खोई गुड़िया,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने,
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...
सहेलियों से लिए-दिये..
या चुकाए गए हिसाब,
बच्चों के मोजे,
पेन्सिल, किताब ढूंढती रहती हैं।
सच है, औरतें बेहद अजीब होती हैं ।
खोलतीं,
बंद करतीं खिड़कियाँ,
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहतीं झिड़कियाँ,
न शौक से जीती हैं,
न ठीक से मरती हैं,
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए,
वो कांस्टेबल लड़की,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी,
वो दीदी...
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती,
वो अनुशासन प्रिय टीचर
कभी दिख ही जाती है कॉरीडोर में,
जल्दी - जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाड़ते हुये ।
सुबह जल्दी में नहाई,
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर-
जिसके दिन
अक्सर गुजरते हैं शहादत में,
और रातें फिर से सलीब होती हैं...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सूखे मौसम में
बारिशों को याद कर के रोतीं हैं ।
उम्र भर हथेलियों में -
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं,
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं,
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं,
तो ये सूखे कपड़ों,
अचार, पापड़ और-
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
खुशी के एक आश्वासन पर,
पूरे का पूरा जीवन काट देतीं हैं ।
अनगिनत खाईयों को,
अनगिनत पुलों से पाट देतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों में,
जंगलों में,
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...
जिन्दगी की आँख से-
दिन - रात इस तरह
कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?
पूछते हैं, तो चुप रहती हैं ।
सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सर्वाधिकार सुरक्षित :
डॉ. ज्योत्सना मिश्रा
सामान बांंध लिया है मैने अब बताओ गालिब,
कहां रहतें हैं वे लोग जो कहीं के नहीं रहते।
इंद्रदेव भारती की फेस बुक वॉल से 

News Feed

( यदि इस पोस्ट को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा )
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
बोस्टन वासी लखनऊ की श्रीमती उमाराय जी
की पोस्टसे उनकी वधु डॉ.ज्योत्सना मिश्रा जी
की यह कवितामयी अभिव्यक्ति भारतीय
संस्कृति में रची - बसी सकल मातृशक्ति के
आंतरिक उद्गारों का एक मार्मिक दस्तावेज है।
जिसे तमाम विश्व की मातृशक्ति को उनकी
ओर से समर्पित कर रहा हूँ ।
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( मूल रचनाकार- डॉ.ज्योत्सना मिश्रा )
|| नारी : तेरी यही कहानी ||
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लोग सच कहते हैं -
औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
रात भर पूरा सोती नहीं,
थोड़ा - थोड़ा जागती रहतीं हैं ।
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं हैं ।
टटोलती रहतीं हैं
दरवाजों की कुंडियाँ,
बच्चों की चादर,
पति का मन..
और जब जागती हैं सुबह,
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
हवा की तरह घूमतीं हैं,
कभी घर में, कभी बाहर...
टिफिन में रोज़ रखतीं हैं नयी कविताएँ,
गमलों में रोज बो देती नयी आशाऐं,
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं हैं,
और चल देतीं हैं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल-
पहन कर फिर वही सीमायें,
खुद से दूर हो कर भी-
सब के करीब होतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं,
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं-
चुल्हे पे चढ़ा दूध...
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं-
बच्चों के मोजे,
पेन्सिल, किताब ।
बचपन में खोई गुड़िया,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने,
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...
सहेलियों से लिए-दिये..
या चुकाए गए हिसाब,
बच्चों के मोजे,
पेन्सिल, किताब ढूंढती रहती हैं।
सच है, औरतें बेहद अजीब होती हैं ।
खोलतीं,
बंद करतीं खिड़कियाँ,
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहतीं झिड़कियाँ,
न शौक से जीती हैं,
न ठीक से मरती हैं,
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए,
वो कांस्टेबल लड़की,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी,
वो दीदी...
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती,
वो अनुशासन प्रिय टीचर
कभी दिख ही जाती है कॉरीडोर में,
जल्दी - जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाड़ते हुये ।
सुबह जल्दी में नहाई,
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर-
जिसके दिन
अक्सर गुजरते हैं शहादत में,
और रातें फिर से सलीब होती हैं...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सूखे मौसम में
बारिशों को याद कर के रोतीं हैं ।
उम्र भर हथेलियों में -
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं,
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं,
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं,
तो ये सूखे कपड़ों,
अचार, पापड़ और-
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
खुशी के एक आश्वासन पर,
पूरे का पूरा जीवन काट देतीं हैं ।
अनगिनत खाईयों को,
अनगिनत पुलों से पाट देतीं हैं ।
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों में,
जंगलों में,
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...
जिन्दगी की आँख से-
दिन - रात इस तरह
कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?
पूछते हैं, तो चुप रहती हैं ।
सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सर्वाधिकार सुरक्षित :
डॉ. ज्योत्सना मिश्रा