Sunday 25 October 2015

ll एक पुरानी ग़ज़ल, नये लिबास में ll

तुम सोचते रहते हो, बादल की उड़ानों तक,
और मेरी निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक.

ऐसी भी अदालत है, जो रूह की सुनती है,
महदूद नहीं रहती, वो सिर्फ़ बयानों तक.

ख़ुशबू-सा जो बिखरा है, सब उसका करिश्मा है,
मंदिर के तरन्नुम से, मस्जिद की अज़ानों तक.

टूटे हुए ख़्वाबों की, एक लम्बी कहानी है,
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक.

दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को,
बेकार ही लाए हम, चाहत को ज़ुबानों तक.

हर वक़्त फ़ज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूं, महकूंगा ज़मानों तक.

बालेन्दु शर्मा दधीचि



मुक्तक 

चन्द जुगनु सूरज को चिढाने आ गए हैँ   
कमजर्फ अपनी औकात बताने आ गए हैँ 
हैसियत से तो वो मेरे खरीदार नहीं थे ,
नाजुक वक्त में कीमत लगाने आ गए 
हैँ | 
......अनूप पाण्डेय 
शेर  
 कीमतें गिर गई महोब्बत की . . .
चलो कोई दूसरा कारोबार करे .
पंडित प्रमोद शुक्ला 
....................................................
गजल 
मेरे दुखों में जो मुझसे लिपटने वाले थे
उन्ही में कुछ मेरी कश्ती उलटने वाले थे
ज़रा सी बात समझते समझते देर लगी
बिना दुखो के कहाँ दिन ये कटने वाले थे
उसी लम्हे में अलग कर दिया क्यूं दुनिया ने
जिस एक लम्हे में हम तुम सिमटने वाले थे……………….

 गजलकार - दिनेश रघुवंशी
आज फिर बुझ गए , जल जल के उमीदों के चराग ,
आज फिर तारों भरी रात ने  दम  तोड़  दिया 
- अंजलि पंडित 
  आचार्य देवप्रभाकर शास्त्री की ये 'हनुमान व्यथा' के संदर्भ में कही पंक्तियां मौजूं लगती हैं:
'किस रावण की बाहें काटूं, किस लंका में आग लगाऊं।
घर-घर रावण, पग-पग लंका, इतने राम कहां से लाऊं।।'
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ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना
अपनी उम्मीद को हर हाल में ज़िन्दा रखना

उसने हर बार अँधेरे में जलाया ख़ुद को
उसकी आदत थी सरे-राह उजाला रखना

आप क्या समझेंगे परवाज़ किसे कहते हैं
आपका शौक़ है पिंजरे में परिंदा रखना

बंद कमरे में बदल जाओगे इक दिन लोगो
मेरी मानो तो खुला कोई दरीचा रखना

क्या पता राख़ में ज़िन्दा हो कोई चिंगारी
जल्दबाज़ी में कभी पाँव न अपना रखना

वक्त अच्छा हो तो बन जाते हैं साथी लेकिन
वक़्त मुश्किल हो तो बस ख़ुद पे भरोसा रखना
सुनील  छैंया  

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