Thursday 10 December 2015

रतजगा अच्छा लगा


रात भर कहता रहा मैं याद में तेरी ग़ज़ल,

मुझको कल की रात भर का रतजगा अच्छा लगा |
- मदन शर्मा

दिल की बात किसी से मत कहना

भूल कर भी अपने दिल की बात किसी से मत कहना,

यहाँ कागज भी जरा सी देर में अखबार बन जाता है....

के विश्वदेव  राव की  फेस बूक वाल से  

Sunday 25 October 2015

मेरे अमेरिका प्रवासके दौरान डाक्टर अजय जनमेजय के दो दोहे
सारे ही हलकान है ,चला गया है लाल |
बिना मधुप अब क्या करें ,आ करके भूचाल
 जल्दी से आ जाईये ,लेकर हंसी गुलाल ,
बिन तेरे बिजनौर का ,जाने क्या हो हाल।
 डॉ अजय जन्मेजय
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कत्ल हुआ हमारा कुछ इस तरह किश्तों में ,
कभी खंजर बदल गए ,कभी कातिल बदल गए ।
    - महेश कुमार मिश्रा  

जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी 
 उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए... -फ़िरदौस ख़ान
 प्रवीण वशिष्ट
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तुमने ज़मीर बेचकर अच्छा नही किया । 
 अब तुमसे हर मुक़ाम पर सौदा करेंगे लोग ।
-शकील अहमद  
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 उसके दुश्मन हैं बहुत, आदमी अच्छा होगा
 वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा 
 अतुल टंडन 
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मौत के डर से नाहक परेशान हैं आप,
जिंदगी कहां है जो मर जांएगे,
तुम्हारा दिल हो या काबा हो या बुतखाना,
हमें तो हर जगह पत्थर दिखाई  देता है।
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छू न पाई तेरा बदन वर्ना,
 धूप का हाथ जल गया होता।
-अंसार कंबरी

" वो हंसकर पूछते है हमसे ,
 तुम कुछ बदल बदल से गए हो... 
और हम मुस्कुरा के जवाब देते है , 
टूटे हुए पत्तों का , अक्सर रंग बदल जाता है "
-अतुल चौहान 
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" दिखाने के लिए तो हम भी बना सकते हैं ताजमहल, 
मगर अपनी मुमताज को मरने दे हम वो शाहजहाँ भी नही.!
इश्क के समंदर में गोता लगाया वाह वाह..!
.पर पानी बहुत ठंडा था इसलिए बाहर निकल आया..!!
चेहरा बता रहा था कि... "मारा है भूख ने 
और लोग कह रहे थे कि कुछ खा के मरा है 

- नीरज कुमार अग्रवाल 
क्या ख़ाक तरक़्क़ी की आज की दुनिया ने…

मरीज़-ए-इश्क़ तो आज भी लाइलाज बैठे हैं!!
-रूद्रेश कुमार की फेसबुक वॉल से 
ll एक पुरानी ग़ज़ल, नये लिबास में ll

तुम सोचते रहते हो, बादल की उड़ानों तक,
और मेरी निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक.

ऐसी भी अदालत है, जो रूह की सुनती है,
महदूद नहीं रहती, वो सिर्फ़ बयानों तक.

ख़ुशबू-सा जो बिखरा है, सब उसका करिश्मा है,
मंदिर के तरन्नुम से, मस्जिद की अज़ानों तक.

टूटे हुए ख़्वाबों की, एक लम्बी कहानी है,
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक.

दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को,
बेकार ही लाए हम, चाहत को ज़ुबानों तक.

हर वक़्त फ़ज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूं, महकूंगा ज़मानों तक.

बालेन्दु शर्मा दधीचि



मुक्तक 

चन्द जुगनु सूरज को चिढाने आ गए हैँ   
कमजर्फ अपनी औकात बताने आ गए हैँ 
हैसियत से तो वो मेरे खरीदार नहीं थे ,
नाजुक वक्त में कीमत लगाने आ गए 
हैँ | 
......अनूप पाण्डेय 
शेर  
 कीमतें गिर गई महोब्बत की . . .
चलो कोई दूसरा कारोबार करे .
पंडित प्रमोद शुक्ला 
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गजल 
मेरे दुखों में जो मुझसे लिपटने वाले थे
उन्ही में कुछ मेरी कश्ती उलटने वाले थे
ज़रा सी बात समझते समझते देर लगी
बिना दुखो के कहाँ दिन ये कटने वाले थे
उसी लम्हे में अलग कर दिया क्यूं दुनिया ने
जिस एक लम्हे में हम तुम सिमटने वाले थे……………….

 गजलकार - दिनेश रघुवंशी
आज फिर बुझ गए , जल जल के उमीदों के चराग ,
आज फिर तारों भरी रात ने  दम  तोड़  दिया 
- अंजलि पंडित 
  आचार्य देवप्रभाकर शास्त्री की ये 'हनुमान व्यथा' के संदर्भ में कही पंक्तियां मौजूं लगती हैं:
'किस रावण की बाहें काटूं, किस लंका में आग लगाऊं।
घर-घर रावण, पग-पग लंका, इतने राम कहां से लाऊं।।'
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ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना
अपनी उम्मीद को हर हाल में ज़िन्दा रखना

उसने हर बार अँधेरे में जलाया ख़ुद को
उसकी आदत थी सरे-राह उजाला रखना

आप क्या समझेंगे परवाज़ किसे कहते हैं
आपका शौक़ है पिंजरे में परिंदा रखना

बंद कमरे में बदल जाओगे इक दिन लोगो
मेरी मानो तो खुला कोई दरीचा रखना

क्या पता राख़ में ज़िन्दा हो कोई चिंगारी
जल्दबाज़ी में कभी पाँव न अपना रखना

वक्त अच्छा हो तो बन जाते हैं साथी लेकिन
वक़्त मुश्किल हो तो बस ख़ुद पे भरोसा रखना
सुनील  छैंया  
यूँ न मायूस  हो" शाम"से ढलते रहिये*

धीमे धीमे ही सही राह पर चलते रहिए |
-अज्ञात
* राम गोपाल शर्मा की फेसबुक वाल से

Saturday 24 October 2015

मेरी पसंद

मुफ़्त में राहत नहीं देगी हवा चालाक है

लूटकर ले जाएगी मेरे पसीने का मज़ा

- ओम प्रकाश नदीम
…। 

मैं तो अख़बार के धोके में आ गया दिल्ली

ये छपा था कि यहाँ मुझ-से दिवाने हैं कई
-मुकुल सरल की फेसबुक वाल से

क्या बंटवारा था इन हाथों की लकीरों का भी ....
उसके हिस्से में प्यार आया और मेरे हिस्से इंतजार
|रूदरेश कुमार की फेसबुक वाल से

कमाल का हौसला द‌िया, रब ने इन इंसानों को
वाकिफ  हम अगले पल से नही और वादे कर लेतें  हैं जन्मों के ।
डा अमृता सिंह की फेसबुक वाल से 

 -एक निवाले के लिये इंसान ने जिसे मार दिया,

वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला।

-विवेक गुप्ता की  वाल से 

Thursday 22 October 2015

 मुहब्बत को हंसी खेल आज तूने कह दिया नादान, 
खबर है कुछ मुहब्बत की,बड़ी तकलीफ  होती है।
-महेश कुमार मिश्रा
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ना पीछे मुड़कर तुम देखो ना आवाज़ दो मुझ को,
बड़ी मुश्किल से सीखा है सब को अलविदा कहना.
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राह  में निकले थे ये सोचकर कि किसी को बना लेंगे अपना,
मगर इस ख्वाइश ने जिंदगी भर का मुसाफिर बना दिया |
-महेश कुमार मिश्रा
 हमने सोचा था हर मोड़ पर तुम्हारा साथ देंगे,
पर क्या करें कमबख्त सड़क ही सीधी निकली !
devendra deva
जुदा होकर भी मैं नज़दीकियाँ महसूस करता हूँ,
बिछड़ता हूँ तो अपनी ग़लतियाँ महसूस करता हूँ.
अभी भी सूखने से बच गया है क्या कोई दरिया,
बदन में क्यों तड़पती मछलियाँ महसूस करता हूँ.
वक़ालत यूँ तो करता हूँ मैं उड़ते हर परिंदे की,
मगर पांवों में अपने बेड़ियाँ महसूस करता हूँ.
कभी एहसास होता है कि हैं पुरवाइयां मुझमें,
कभी धुआं उगलती चिमनियाँ महसूस करता हूँ.
दिलों की बात मैं जब भी लिखा करता हूँ काग़ज़ पर,
क़लम पर मैं किसी की उंगलियाँ महसूस करता हूँ.
सभी का मेरे अहसासों से रिश्ता है कोई वरना,
सभी की मैं ही क्यों मजबूरियाँ महसूस करता हूँ.
 -अंसार कंबरी  

मेरी पसंद

कल रात  मेने  सारे  दुःख कमरे की   दीवारों  से कह डाले ,
अब में सोता    रहता  हूँ  और दीवारें रोती  रहतीं  हें|
पंडित प्रमोद शुक्ला
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-आँखों  की गली में कोई आवारा सा आंसू .
पलकों की गली से  तेरे घर का पता बूझ रहा हैं
ऍम ऍम खान नियाजी
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-किसने कहा तुझे कि अनजान बनके आया कर,
मेरे दिल के आइने में महमान बनके आया कर।
पागल इक तुझे ही  तो बक्शी है दिल की हकूमत,
ये तेरी सलतनत है, तू सुलतान बनके आया कर।
-अंजली पंडित
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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
दुष्यंत कुमार त्यागी

Wednesday 21 October 2015

मुझें पतझड़ों की कहानियां ना सुना सुना के उदास कर ,
नए मोसम का पता बता ,जो गुजर गया सो गुजर गया
पंडित प्रमोद शुक्ला
- अनवर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना.........!!
जहाँ बुनियाद हो, वहां, इतनी नमी अच्छी नहीं होती.
anwar jamils sher by ekbal ahmad